नौलि (लौलिकी) क्रिया का अर्थ - विधि, लाभ और सावधानियां

लौलिकी (नौलि) -लौलिक शब्द की व्युत्पत्ति 'लोल' शब्द से हुई है जिसका अर्थ उत्तेजनापूर्वक इधर-उधर घुमाना है। पेट की मांसपेशियों को और उससे संबंधित सभी संस्थानों को संकुचित कर घुमाना, जिससे सभी पाचन अंग एवं पेशियाँ और स्नायु को उत्तेजना शक्ति मिलती है तथा वे सक्रिय होते हैं। इसका यौगिक नाम नौलि है। इससे सभी रोगों का निवारण होता है और जठराग्नि प्रदीप्त होती है। यह क्रिया अग्निसार का ही प्रकारांतर है। पेट की पेशियों का नौलि क्रिया से ज्यादा संबंध है। इसमें पेट की मांसपेशियों को विशेष रूप से संकुचित करते हैं। उदर के सामने के हिस्से में दो पेशियाँ लंबवत रूप से पसलियों के नीचे की आकृति जंघास्थि तक जननेंद्रिय में थोड़ा ऊपर स्थित है। यह पेशी ऊपर को ओर चौड़ी तथा नीचे की ओर पतली है। जिससे अन्य पेशियाँ भी मिली हुई हैं जो साथ-साथ कार्य करती हैं। जब पेशियों की नियंत्रण शक्ति कमजोर होती है तब हर्निया को बीमारी होती है। नौलि में इन पेशियों के सिकड़ने से पाचन अंगों की मालिश होती है जिससे पाचन क्रिया में सहायता मिलती है।

नौलि के प्रकार, विधि, लाभ और सावधानियाँ की जानकरी इन हिंदी

nauli kriya kya hai in hindi

नौलि के प्रकार - मुख्यतः चार प्रकार की नौलि की चर्चा की गई है -
(1) सामान्य और मध्यम नौलि, (2) वाम नौलि, (3) दक्षिण नौलि, (4) भ्रमर नौलि या केवल नौलि।

मध्यम नौलि - उत्कट आसन में बैठकर रेचक द्वारा फेफड़ों को पूर्णतः खाली करते हैं। रेचक क्रिया अच्छी तरह पूर्ण करने हेतु पेट की मासपेशियों को संकुचित कर उड्डियान बंध का अभ्यास करना होता है।

मध्यम नौलि की विधि - इसमें दोनों पैर के बीच एक मीटर की दूरी रखते हुए घुटनों को थोड़ा सा मोड़ते हुए आगे की ओर झुकते हैं। हाथों को घुटनों से थोड़ा ऊपर रखते हैं ताकि शरीर का उपरी हिस्सा उस पर आधारित रहे। अभ्यास के क्रम में भुजा सीधी रखते हैं। अब श्वास छोड़ते हुए बाह्य कुम्भक कर पेट को अंदर की ओर खींचते हैं और पेट की पेशियों को अगल-बगल से दबाव डालकर उसे बीच में लाने का प्रयास करते है।
पेट पूर्णतः खाली होना चाहिए। फेफड़े भी खाली हों। जब तक बाहर श्वास रोकते हैं तभी तक नौलि का अभ्यास होना चाहिए। पेट की पेशियाँ अधिक से अधिक संकुचित करने का प्रयास करें लेकिन अधिक तनाव नहीं पड़ना चाहिए।

वाम नौलि की विधि - जब तक मध्यम नौलि में पूर्णतः दक्षता प्राप्त न हो जाए तब तक वाम नौलि का अभ्यास नहीं करना चाहिए। मध्यम नौलि की स्थिति में आकर पेट की दाहिनी ओर की पेश्यों को ढीला कर बाईं ओर की मांसपेशियों को संकुचित करते हैं। जिससे उदर की मांसपेशियाँ उदर स्वाभाविक रूप से बायीं तरफ खिंच जाती हैं। इसके पश्चात पुनः मध्यम नौलि की अवस्था में आते हैं। अतः मांसपेशियों को ढीला कर उडिडयान बंध की स्थिति में आकर पुनः श्वास लेकर मांसपेशियों को फैलने देते हैं। हृदय गति सामान्य व श्वास की गति भी सामान्य हो जाने देते हैं ।

दक्षिण नौलि की विधि - इसमें उदर के बाईं तरफ की पेशियों को ढीला कर दाएँ भाग को पेशियों को संकुचित करते हैं। ये पेशियाँ संकुचित होकर पेट के दाएँ भाग में लंबवत धनुष की भांति एकत्रित हो जाती हैं। यह दक्षिण नौलि की अंतिम स्थिति है। पुनः मध्यम नौलि की स्थिति में फिर उडिडयान बंध कर फिर इसे खोलते हुए श्वास सामान्य करना है। इसे आसान बनाने के लिए थोड़ा आगे झुककर बाईं जंघा को ढीला रखते हुए दाईं जंघा पर दबाव डालते हैं।

दक्षिण नौलि की सावधानियाँ - दक्षिण नौलि में निम्नलिखित सावधानियाँ रखते हैं-
(1) जितनी देर तक आसानी से श्वास रोक सकते हैं, संकुचन बनाए रखते हैं। अधिक दबाव न पड़े इसका ध्यान रखना चाहिए।
(2) शीघ्र सफलता के लिए जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए ।
(3) नौलि का अभ्यास करते हुए ध्यान हमेशा पेशी संकुचन पर ही होना चाहिए।
(4) क्रिया आरंभ करते समय श्वास की गति सामान्य रहेगी। उदर की मांसपेशियों के संकुचन से पूर्व पूरी श्वास छोड़कर उडिडयान बंध लगा देना है। संकुचन के समय श्वास बाहर रुकी रहेगी।

भ्रमर नौलि की विधि - पहले मध्यम नौलि फिर वाम नौलि पुनः उडिडयान बंध लगाकर दक्षिण नौलि का अभ्यास करते हैं। अंत में फिर मध्यम नौलि का अभ्यास करते हैं। इस प्रकार पेट की मांसपेशियों को घुमाने की प्रक्रिया पूरी होती है। फिर पेट की मांसपेशियों को ढीला छोड़कर श्वास की गति एवं हृदय गति सामान्य करते हैं। यह एक आवृत्ति हुई। इसके बाद पुनः श्वास बाहर छोड़कर उडिडयान बंध लगाते हैं। पेट की मांसपेशियों को विपरीत दिशा में घुमाते हैं। क्रम इस प्रकार होगा- मंध्यम नौलि, दक्षिण नौलि, उडिडयान बंध, वाम नौलि और अंत में मध्यम नौलि। यह क्रिया लयबद्ध होनी चाहिए। यह क्रिया प्रातःकाल खाली पेट ही करना चाहिए या भोजन के 5-6 घंटे बाद । प्रारंभिक अभ्यासी को इस क्रिया की 5-6 आवृत्ति ही पर्याप्त मानी गई है। धीरे-धीरे इसकी सख्या 10 तक बढ़ाई जा सकती है।

भ्रमर नौलि की सावधानियाँ - भ्रमर नौलि में निम्न सावधानियाँ रखनी चाहिए-
(1) यदि अभ्यास के समय पेट में दर्द का अनुभव हो तो तुरंत इस अभ्यास को रोक दैना चाहिए। कुशल चिकित्सक या प्रशिक्षक से सलाह लेकर ही करना चाहिए।
(2) उच्च रक्तचाप, पथरी, पेप्टिक अल्सर, आँतों में घाव से ग्रस्त व्यक्ति को नहीं करना चाहिए|
(3) गर्भवती महिलाओं को भी अभ्यास नहीं करना चाहिए ।

भ्रमर नौलि के लाभ - भ्रमर नौलि के प्रमुख लाभ निम्नांकित हैं-
(1) मणिपुर चक्र को जाग्रत करने में नौलि का बहुत बड़ा योगदान है।
(2) अग्नाशय के कार्य में सक्रियता के कारण इन्सुलिन का स्राव होता है जिससे मधुमेह - के रोगी को बड़ा लाभ होता है।
(3) पेट की मांसपेशियाँ सबल और पुष्ट होती हैं।
(4) पेट की मांसपेशियों के शक्तिशाली और नियंत्रित होने से हर्निया होने को संभावना कम रहती है। इससे पेट के समस्त अंगों की मलिश होती है। इसका प्रभाव शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक चेतना तीनों पर पड़ता है।
(5) शरीर के सूक्ष्म अंगों जैसे-मांसपेशियों, रक्तवाहिकाओं, धमनियों, शिराओं, तंत्रिकाओं, अंतःस्रवि ग्रंथियों, रक्त परिसंचरण तंत्र आदि को भी शुद्ध कर देती है।