अर्द्धमत्स्येंद्रासन का अर्थ - विधि, लाभ और सावधानियां

अर्द्धमत्स्येंद्रासन का नामकरण - मत्स्येंद्र नाम के एक महान योगी हुए हैं। वे इस आसन में प्राय: बैठा करते थे। इसलिए इस आसन का नाम मत्स्येंद्रासन है। इसक सरल रूप को अर्द्धमत्स्येंद्रासन कहते हैं।

ardha matsyendrasana karne ka tarika in hindi

अर्द्धमत्स्येंद्रासन की विधि - सर्वप्रथम दंडासन में बैठकर दाएँ पैर को मोड़कर जमीन पर बाएँ घुटने की बगल में रखते हैं। बाएँ पैर को मोड़कर बायीं एड़ी को दाएँ नितंब के पास रखते हैं। उसके विपरीत भुजा को छाती तथा घुटने के बीच से ले जाते हैं। कोहनी से घुटने को शरीर से दबाकर हाथ को सीधा करके पैर के अंगूठे को इस प्रकार पकड़ते हैं कि दायाँ घुटना काँख के पास हो, दूसरा हाथ पीठ की ओर तथा हथेली खुली हुई होनी चाहिए। दृष्टि को पीछे की ओर रखते हैं।

अर्द्धमत्स्येंद्रासन से लाभ - इस आसन के प्रमुख लाभ निम्नांकित हैं-
(1) यह यकृत तथा मूत्राशय को सक्रिय करता है।
(2) अग्नाशय को उद्दीप्त कर इन्सुलिन के स्त्राव को बढ़ता है।
(3) मधुमेह में यह बहुत उपयोगी है।
(4) यह कोष्ठबद्धता तथा अजीर्ण में अत्यंत लाभकारी है।
(5) कंधे और पीठ की मांसपेशियों के लिए लाभदायक है।
(6) रीढ़ की हड्डी पुष्ट और स्वस्थ होती है। आमाशय के विभिन्‍न अंगों की मालिश होती है।

अर्द्धमत्स्येंद्रासन की सावधानियाँ - अर्द्ध-मत्स्येंद्रासन में निम्नलिखित सावधानियाँ रखनी चाहिए-
(1) जिन्हें मेरुदंड में कड़ेपन की शिकायत हो वे इसे अत्यंत सावधानी से करें।
(2) पेप्टिक अल्सर, हर्निया, हाइपर थॉइरॉइड से पीड़ित व्यक्ति को इसका अभ्यास किसी प्रशिक्षित डॉक्टर के मार्गदर्शन में लेना चाहिए।
(3) हृदय रोग, साइटिका, स्लिपडिस्क आदि में सावधानीपूर्वक करना चाहिए।