हठयोग में भोजन (आहार) का महत्व एवं अर्थ की जानकारी इन हिंदी

आहार - योग साधना में मिताहार का महत्त्व - योग साधना में आहार का विशेष महत्त्व है। उचित आहार के बिना साधना कर पाना मुमकिन नहीं हैं, क्योंकि आहार ही हमारे शरीर का पोषण करता है। साधक शरीर को ही आधार बनाकर योग साधना करते हैं। शरीर का ध्यान रखने के लिए उन्हें अपने आहार का भी ध्यान रखना आवश्यक है। योग साधना उनके लिए है जो संयमित भोजन करते हैं। जो अपने आहार पर ध्यान नहीं देते वे योग साधना में सफल नहीं हो सकते हैं।

आहार हमारे शरीर के लिए उतना ही आवश्यक है जितना मोटर के लिए पेट्रोल-डीजल। मोटर में अशुद्ध, मिलावटी पेट्रोल देने से गाड़ी जल्दी ही खराब हो जाती है, ठीक उसी प्रकार अशुद्ध आहार शरीर रूपी गाड़ी को अस्वस्थ कर देता है, जिससे जीवन यात्रा, हमारी दिनचर्या स्वाभाविक रूप से नहीं चल पाती। अत: योगी को आहार के प्रति जागरूक होना चाहिए। भोजन जितना पवित्र और सात्त्विक होगा साधक उतना ही नीरोग और शांति-आनंद का
अनुभव करेंगे। भोजन जितना तामसिक होगा साधक उतना ही निर्बल और अशांत रहेंगे।

आयुर्वेद के अनुसार - ''शरीर का हम पोषण करते हैं तो शरीर हमारा पोषण करता है। हमारे द्वारा खाए गए पदार्थ शरीर में पचकर शरीर के अन्य भागों में पहुँचता है।''
अत: योग साधक को सात्त्विक आहार लेना चाहिए। कहा गया है -
जैसा खाए अन्नवैसा बने मन।

गीता के अनुसार-जो व्यक्ति शरीर के साथ विचारणा, भावना को शुद्ध, पवित्र एवं निर्मल रखना चाहता है। उसे राजसी एवं तामसी आहार त्याग करके सात्त्विक आहार लेना चाहिए। आहार की शुद्धि होने से अंतःकरण की शुद्धि होती है। अंतःकरण की शुद्धि होने से बुद्धि निश्चल होती है और बुद्धि के निर्भय होने से सभी प्रकार के संशय और भ्रम जाते रहते है, तक मुक्ति का मार्ग प्रशस्त हो जाता है।

यौगिक साहित्यों में मिताहार का अर्थ - आहार वह है जिसे योगी योग साधना के दौरान ग्रहण करते हैं। इसे ही मिताहार भी कहते हैं।
गीता में शंकराचार्य जी ने कहा है-
आहयते इति आहारः।
जो इन्द्रियों द्वारा ग्रहण किया जाता है, वह आहार है। मिताहार दो श्ब्दों से मिलकर बना है-मित + आहार।

मित - संतुलित,
आहार - ग्रहण करना।

अर्थात आहार को संतुलित मात्रा में ग्रहण करना जिससे हमारा शरीर, मन एवं अंत:करण पोषित हो सके। यह न तो अधिक मात्रा में लेना चाहिए और न ही बहुत कम मात्रा में। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि योग साधना के अनुरूप शरीर को स्वस्थ और सुन्दर बनाए रखने के लिए जो संतुलित आहार ग्रहण किया जाता है, उसे मिताहार कहते हैं।

हठयोग में भोजन (आहार) की विधि के बारे में जानकारी इन हिंदी

hathayog me bhojan aahaar ki vidhi in hindi

हठयोग में भोजन (आहार) की विधि -

यौगिक साहित्यों में मिताहार को तीन भागों में बाँटा गया है-

(1) भोजन की मात्रा, (2) भोजन की गुणवत्ता, (3) विश्ष्टि मनःस्थिति।

(1) भोजन की मात्रा -हमें कितना भोजन करना चाहिए। यह व्यक्ति की पाचन शक्ति पर निर्भर करता है कि भोजन की मात्रा कितनी होनी चाहिए।

चरणदास के अष्टांग योग के अनुसार -प्रत्येक व्यक्तियों में प्रकृति-प्राप्त कुछ ऐसे गुण दिए गए हैं जिसके द्वारा यह जाना जा सकता है कि उसने कम खाया या ज्यादा अर्थात व्यक्ति अपनी तप्तता का एहसास कर सकता है। मिताहार के अभ्यास के द्वारा ही इसी प्रकृति प्रदत्त गुणों को विकसित करना तथा इसका प्रयोग करना जिसके द्वारा व्यक्ति यह जान सके कि उसने कितना खाया।

यौगिक ग्रंथों में आहार की मात्रा के बारे में बताया गया है।

वशिष्ठ संहिता तथा अष्टांग योग के अनुसार -इन ग्रंथों में ग्रास की संख्या व्यक्ति के आश्रम के आधार पर निर्धारित को गई है। चार आश्रम - ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यास।

दर्शनोपनिषद् के अनुसार -भाग्य में रखे गए भोजन के एक चौथाई भाग छोड़कर भोजन ग्रहण करना चाहिए।

हठप्रदीपिका के अनुसार - स्निग्ध (चिकनाई युक्त) तथा मधुर भोजन भगवान को अर्पित कर अपने का चतुर्थाश कम खाया जाए, उसे मिताहार कहते हैं।

घेरण्ड संहिता(5/21, 22) के अनुसार, स्वच्छ, सुमधुर, स्निग्ध और सुरस द्रव्य से संतोषपूर्वक भगवान को अर्पित कर आधा पेट भरना और आधा पेट खाली रखना चाहिए। पेट के आधे भाग को अन्न से तथा तीसरे भाग को जल से तथा चौथे भाग को वायु संचरण के लिए खाली रखना चाहिए। विद्वानों ने इसे मिताहार कहा है।

(2) भोजन की गुणवत्ता - यौगिक शस्त्रों में भोजन को गुणवत्ता को दो भागों में बाँटा गया है - (क) पंथ्य, (ख) अपथ्य।
(क) पथ्य-योगियों द्वारा खाए जाने योग्य पदार्थ पथ्य भोजन कहलाते हैं।
(ख) अपश्य-योगियों के लिए वर्जित पदार्थ अपथ्य भोजन कहलाते हैं।

पथ्य भोजन :
हठप्रदीपिका (1/62, 63) के अनुसार, योगाभ्यासी को पुष्टिकारक सुमधुर, स्निग्ध, गाय के दूध से बनी वस्तु, धातु को पुष्ट करने वाला, मनोनुकूल तथा विहित भोजन करना चाहिए। उत्तम योग साधकों के लिए पथ्य भोजन यह है--चावल , जौ, दूध, घी, मक्खन, मिश्री, मधु, सूंठ, परवल जैसे फल आदि, 5 प्रकार के साग-(जीवंती, बथुआ, चौलाई, मेघनाथ, पुनर्नवा ), मूँग, हरा चना, आदि तथा वर्षा का जल (वर्तमान में उपयुक्त नहीं है)।

घेरण्ड सहिता (5/7-20) के अनुसार, साधक को चावल, जौ का सत्तू, गेहूँ का आटा, मूँग, उड़द, चना आदि का भूसी रहित, स्वच्छ करके भोजन करना चाहिए। परवल, कटहल, ओल, मानकंद, कंकोल, करेला, कंदूरु, अरवी, ककड़ी, केला, गुलर और चौलाई आदि का शाक भक्षण करें। कच्चे या पक्के केले के गुच्छे का दंड और उसके मूल, बैंगन, ऋद्धि, कच्चा शाक, ऋतु का शाक, परवल के पत्ते, बथुआ और हुरहुर का शाक खा सकता है।

अपथ्य भोजन :

घेरण्ड संहिता (5/23-26) के अनुसार, कडुवा, अम्ल, लवण और तीखा ये चार रस वाली वस्तुएँ, भुने हुए पदार्थ, दही, तक्र, शाक, उत्कट, मद्य, ताल और कटहल का त्याग करें। कुलथी, मसूर, प्याज, कुम्हड़ा, शाक-दंड, गोया, कैथ, ककोड़ा, ढाक, कदंब, जंबीरी, नीबू, कुंदरू, बड़हड़, लहसुन, कमरख, पियार, हींग, सेम, बंडा आदि का भक्षण योगारंभ में वर्जित है। मार्ग गमन, स्त्री गमन तथा अग्नि सेवन तपना भी योगी के लिए उचित नहीं। मक्खन, घृत, दूध, दाल, गुड, शक्कर, आँवला, अम्ल रस आदि से बचें। पाँच प्रकार के केले, नारियल, अनार, सौंफ आदि वस्तुओं का सेवन भी न करें।

हठप्रदीपिका (1/59) के अनुसार, करेला आदि कटु और इमली आदि अम्ल (खटूटा) और मिर्च आदि तीक्त (तीक्ष्ण), लवण और गुड़ आदि उरूण और हरित साग (यत्रियों का साग), तिल का तेल, मदिरा, माँस, दही, मट्ठा, हींग तथा लहसुन आदि वस्तु, योग साधकों के लिए अपथ्य कहे गए हैं।

आयुर्वेद में अपथ्य भोजन के संबंध में दो दृष्टिकोणों से विवेचन किया गया है -

(क) स्वाद की दृष्टि से, (ख) पाचन की दृष्टि से अपथ्य भोजन।
(क) स्वाद की दृष्टि से- इस आधार पर अपथ्य भोजन के 6 गुण बताए हैं-
1. कटु, 2. अम्ल, 3. लवण, 4. तिक्‍त, 5. कषाय एवं 6. मधु (मीठा)।
(ख) पाचन के दृष्टि से- इस दृष्टि से अपथ्य भोजन दो प्रकार के बताए गए हैं -
1. गुरु, 2. लघु

इस प्रकार उपर्युक्त ग्रंथों के आधार पर अपथ्य भोजन के गुण हैं -(1) बासी, जूठे एवं गंदे भोज्य पदार्थ, (2) कटु अम्ल एवं नमकीन, (3) बार-बार गर्म किया गया भोजन, (4) कठिन भोजन (जैसे कटहल), (5) बहुत अधिक गर्म अथवा बहुत अधिक ठंडा भोजन।

(3) विशिष्ट मन:स्थिति -- योगियों को एक विश्ष्टि मनःस्थिति के साथ भोजन ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि इसका प्रभाव शरीर पर ही नहीं हमारे अंतःकरण पर भी पड़ता है।
वेदों में कहा गया है -

''त्याग के साथ भोजन ग्रहण करना चाहिए। ' वाल्मीकि रामायण में अन्न के गुणों के बारे में बताया गया है -
य़दन्न पुरुष दृष्टि भवति तदन्नास्तस्य देवता:।
मनुष्य जैसा अन्न खाता है वैसा ही अन्न उसके देवता (अंतःकरण) खाते हैं।

श्रीमद्भगवत्गीता के अनुसार-''उचित आहार, उचित विहार, कर्मों में उचित चेष्टा, सही समय पर सोना, सही समय पर जागना, ऐसा करने वाले योगी के सारे दु:ख, रोग नष्ट हो जाते हैं।''
अष्टांग योग में चरणदास जी ने मिताहार के बारे में निर्देश दिया है -
क्षुधा मिटै, नहीं आलस्य आवै।
हमें ऐसा या इतना भोजन करना चाहिए जिससे भूख भी मिट जाए और आलस्य भी न आवे। कहने का तात्पर्य है कि यदि अधिक भोजन कर लिया जाए तो आलस्य का निर्माण होता है तथा कम भोजन से मन अशांत रहता है, क्योंकि क्षुधा (भूख) की वृद्धि नहीं होती। अतः क्षुधा संतुलित आहार का निर्देश दिया गया है।

आयुर्वेदश्स्त्रमें कहा गया है-'' भोजन स्वयं को संतुष्ट करने के लिए नहीं करना चाहिए वरन शरीर के अंदर विद्यमान भगवान को प्रसन्न अथवा संतुष्ट करने के लिए करना चाहिए।

सारांश- योग मार्ग पर अग्रसर होने के लिए मिताहार बहुत अधिक महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि अधिक भोजन योग के मार्ग में बाधक है। घेरण्ड संहिता में कहा गया है कि जो साधक योगारंभ करने के काल में मिताहार नहीं करता, उसके शरीर में अनेक प्रकार के रोग उत्पन्न हो जाते हैं और उनको योग की सिद्धि नहीं होती है।

भोजन का प्रभाव शरीर, मन और अंत:करण पर पड़ता है इसलिए मिताहार में शुद्ध सात्तिक भोजन लेने का परामर्श दिया जाता है। योगाचारियों ने मिताहार के तीन विशेष पहलुओं पर विशेष ध्यान दिया है-भोजन की मात्रा, भोजन की गुणवत्ता तथा विशिष्ट मनःस्थिति। अत: योग साधक के लिए इन तीनों का होना आवश्यक है।