मुद्रा का अर्थ एवं परिभाषा | मुद्रा की सावधानियाँ, लाभ एवं विधि
मुद्रा का अर्थ: हठयोग में मुद्रा और बंध का स्थान तीसरा है। मुद्रा शब्द की निष्पत्ति 'मुद॒हर्षे' धातु में 'रक्' प्रत्यय लगाने से हुई है। जिसका अर्थ है - 'प्रसन्नदायिनी स्थिति'। यौगिक ग्रंथों में मुद्रा का अर्थ प्रायः अंगों के द्वारा विश्ष्टि भावाभिव्यक्ति के रूप में लिया गया है।
योग के अभ्यासियों, साथधकों का प्रमुख लक्ष्य सुप्त क्षमताओं या अर्तीद्रिय क्षमताओं का जागरण करना अर्थात प्रसुप्त कुंडलिनी शक्ति का जागरण करना है। कुंडलिनी शक्ति का जागरण करने की विद्या अत्यंत गोपनीय रखी गई है। हठयोग में प्रचलित सभी मुद्राओं, आसन, प्राणायाम के साथ बंधों का प्रयोग कर शरीरांगों के द्वारा विशिष्ट भाव अभिव्यक्त किया जाता है।
यदि स्थूल रूप से देखा जाए तो चित्त के विशेष भाव को मुद्रा कहते है। यौगिक ग्रंथों में जिन मुद्राओं का वर्णन मिलता है, वे चित्त के विशेष भाव एवं प्राण की अवस्थाओं की द्योतक हैं। सामान्यतः शास्त्रीय नृत्य में हमें कई मुद्राएँ देखने को मिलती है, जो व्यक्ति के भाव विशेष को प्रकट करती हैं। क्रोध के भाव को चेहरे, आँखों के द्वारा, हाथों एवं शारीरिक भाव-भंगिमाओं के द्वारा प्रकट करते हैं।
यौगिक ग्रंथों में कहा गया है कि यदि कोई अभ्यासी लंबे समय तक किसी मुद्रा का अभ्यास करता है तो वह उस मुद्रा को प्राप्त कर लेता है, क्योंकि शरीर और मन उद्देग, संवेदना उत्पन्न होने लगती है। हम जिस किसी शारीरिक तंत्रिका तंत्र में एक विशेष प्रकार की संवेदना उत्पन्न कर हमारी मस्तिष्क तरंगों में परिवर्तन लाती है। मस्तिष्क तरंगों में यह परिवर्तन धीरे-धीरे चेतना की स्थिति को प्रभावित करता है और कुछ समय तक भाव को अभ्यासी व्यक्ति अपने भीतर, अपने मानस पटल में अनुभव करता है।
मुद्रा की परिभाषा: उपरोक्त अर्थ के संदर्भ में मुद्रा की परिभाषा निम्न प्रकार दी जा सकती है -
"आसन, प्राणायाम एवं बंध की सम्मिलित वह विश्ष्टि स्थिति जिसके द्वारा उच्च आध्यात्मिक शक्ति का जागरण संभव हो, मुद्रा कहलाती है।''
मुद्रा का उद्देश्य: आध्यात्मिक साधना की दृष्टि से मुद्रा एवं बंध का मुख्य उद्देश्य कुंडलिनी शक्ति का जागरण है। इसके अतिरिक्त आंतरिक बताया गया है। हठयोग साधना का मुख्य उद्देश्य भी यही माना गया अवयवों को नियंत्रित कर अभ्यासी साधक अपने शरीर की अंतःस्रावी ग्रंथियों को प्रभावित करता है।
जिनके स्राव से साधक की शारीरिक एवं मानसिक स्थिति और सुदृढ़ होती है। मुद्रा के अभ्यास में स्थिरता' की बात घेरण्ड संहिता में की गई है - 'मुद्रया स्थिरता चैव'- मुद्रा के अभ्यास से स्नायु संस्थान को वश में करके इच्छित ऊर्जा का उत्पादन एवं प्रयोग करके स्थिरता का भाव प्राप्त किया जा सकता है। मुद्रा का भाव साधक को अपने गुणों के अनुकूल ही ढाल लेता है और साधक मुद्रा के प्रभाव से प्रभावित होकर साधना के पथ पर अग्रसर होने लगता है। मुद्राओं के अभ्यास से तंत्रिका तंत्र के द्वारा मस्तिष्क को भेजे जाने वाले संदेश चेतना को जाग्रत करने में सफल होता है।
मुद्राओं के अभ्यास की तैयारी:
(1) मुद्रा के अभ्यास से पूर्व उपयुक्त आसन-प्राणायाम एवं बंधों का अभ्यास भली प्रकार करना आवश्यक है।
(2) प्राणायाम में पूरक, रेचक एवं कुंभक का सही अनुपात का अभ्यास जरूरी है।
(3) नाड़ी शोधन प्राणायाम का अभ्यास तीन से चार माह तक करना आवश्यक है।
(4) आसन, प्राणायाम एवं बंधों के अभ्यास दृढ़ होने पर हठयौगिक मुद्राओं का अभ्यास करना 'उचित है।
मुद्रा अभ्यास के सिद्धांत: अभ्यासी व्यक्ति को निम्न सिद्धांतों पर ध्यान देना चाहिए -
(1) अभ्यास का स्थान स्वच्छ, शांत, हवादार एवं साधनोपयोगी होना चाहिए।
(2) पहले सरल मुद्राओं का अभ्यास करें फिर धीरे-धीरे जटिल की ओर बढ़ें।
(3) अभ्यास आरंभ हेतु उपयुक्त ऋतु वसंत बताया गया है।
(4) सूर्योदय से पूर्व एवं सूर्यास्त के समय अभ्यास का उपयुक्त काल बताया गया है।
(5) अभ्यास किसी मागदर्शक के निर्देशन में ही शुरू करें।
मुद्रा के प्रकार उनका अर्थ, विधि, सावधानियाँ एवं लाभ इन हिंदी
मुद्रा के प्रकार -
योग मुद्रा: योग मुद्रा शब्द' योग' और 'मुद्रा' शब्दों के मिलने से बना है। यह अभ्यास कुंडलिनो जागरण में सहायक है। इसलिए इसे योग मुद्रा कहा गया है।
योग मुद्रा की विधि - सर्वप्रथम पद्मासन में बैठते हैं। यहाँ दोनों पैर की एड़ी का दबाव वृहदांत्र एवं रीढ़ की हड्डी के अंतिम निचले छोर (सेक्रम) पर पड़ता है। कमर, रीढ़ एवं गरदन सीधी रहेगी। अब दोनों हाथ को पीछे ले जाकर दाहिने हाथ से बाएँ हाथ की कलाई को पकड़ते हैं। गहरी श्वास लेते हैं, तत्पश्चात् श्वास छोड़ते हुए आगे की ओर झुकते हुए ललाट (माथा) को जमीन से सटाने का प्रयास करते हैं। कुछ देर के पश्चात् श्वास लेते हुए पुनः वापस आ जाते हैं।
योग मुद्रा की सावधानियाँ - योग मुद्रा में निम्मलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिए-
(1) मुद्रा का अभ्यास करते समय खासकर ललाट को भूमि पर सटाते समय पीठ को झटके के साथ न झुकाएँ।
(2) आरंभ में अभ्यास धीरे-धीरे शुरू करें।
(3) प्रारंभ में यथासंभव जितना झुक सकते हैं वहीं पर थोड़ी देर रुकें, अपने आप मेरुदंड में झुकाव बढ़ता जाएगा।
(4) आरंभ में 5 - 10 सेकंड तक ही अंतिम स्थिति में रुकें, तत्पश्चात धीरे-धीरे समय बढ़ाते जाएँ। शुरू में इस अभ्यास को तीन से पाँच बार दोहराएँ।
योग मुद्रा से लाभ - योग मुद्रा के प्रमुख लाभ निम्नलिखित हैं -
(1) इसके अभ्यास से मध्यपटल पेशी (Diaphragm) सबल होता है।
(2) उदर स्थित सभी अंग अपने स्थानों पर बने रहते हैं।
(3) नाड़ी-संस्थान, खासकर कटित्रिक् (Lumbo Sacral) नाड़ियाँ सबल बनती है।
(4) कोष्ठबद्धता (Constipation) कम करने में सहायक होता है।
(5) प्रजनन अंग संबंधी रोगों में भी लाभदायक होता है।
(6) कुंडलिनी शक्ति के जागरण में सहायक।
विपरीतकरणी मुद्रा: घेरण्ड संहिता में कहा गया है - नाभि मूल में सूर्यनाड़ी और तालू मूल में चंद्र का वास है। सूर्य द्वारा चंद्र से स्नावित अमृत का पान करने से प्राणी की मृत्यु का भय नहीं रहता। अतएव सूर्य को ऊपर और चंद्र को नीचे कर लें। यही विपरीतकरणी मुद्रा है, जो सब प्रकार से गोपनीय है। सिर को भूमि में लगाकर दोनों हाथ टेकें और दोनों पाँवों को ऊपर उठाकर कुंभक के द्वारा वायु को रोकें, यही विपरीतंकरणी मुद्रा है। इसका नियमित अभ्यास करने से वृद्धावस्था एवं मृत्यु नष्ट होती है। इसका अभ्यास करने वाले सब लोकों में सिद्ध, संपन्न एवं प्रलय काल में भी दुखी नहीं होता है।
विपरीतकरणी मुद्रा की विधि - विपरीतकरणी का अर्थ है - शरीर को उसकी सामान्य स्थितियों से विपरीत अवस्था में ला देना। पीठ के बल सीधे लेटकर पैर सीधे और एक साथ, हथेलियाँ जमीन की ओर रहेंगी। संपूर्ण
शरीर शिथिल करते हुए धीरे-धीरे श्वास भरते हुए दोनों पैर को एक साथ रखते हुए उपर उठाते हैं। पैरों को सिर की ओर लाकर, फिर हाथों को मोड़कर हथेलियों से कमर के पास नितंबों के ऊपरी भाग को सहारा देते हुए कुहनियों को यथासंभव पास-पास रखते हैं। धड़ को हाथ का सहारा देते हुए पैरों को इस प्रकार उठाते है कि ये भूमि के लंबवत रहें। पैर, दृष्टि की सीध में होने चाहिए। आँख बंद, एकाग्रता मणिपुर चक्र पर। शरीर को पुनः वापस लाते समय अंतःकुंभक लगते है।
विपरीतकरणी मुद्रा की सावधानियाँ -उच्च रक्तचाप (High B.P), हृदय रोग (Heart Disesae), थायराइड अभिवृद्धि (Thyroid Disorder) आदि दोषों में यह अभ्यास नहीं करना चाहिए। अस्वस्थ्य अवस्था में न करें।
विपरीतकरणी मुद्रा से लाभ - विपरीतकरणी मुद्रा से निम्नाँकित लाभ होते हैं -
(1) इससे थायराइड (Thyroid) संतुलित होता है। सर्दी, जुकाम, गले का सूजन, श्वसन संबंधी रोग दूर होते है। यह पाचन क्रिया को बढ़ाता है तथा कब्जियत दूर करता है।
(2) मस्तिष्क (Brain Region) खासकर सेरेब्रल कार्टेक्स (Cerebral Cortex), पीनियल ग्रंथि (Pineal Gland), पिट्यूटरी ग्रंथि आदि में रक्त संचार (Blood Circulation) बढ़ जाता है। मानसिक सतर्कता बढ़ जाती है।
(3) इस अभ्यास का संतुलनकारी प्रभाव रोगों की शरीरिक एवं मानसिक स्तर पर अभिव्यक्ति को रोकने में सहायक होता है।